Monday, June 17, 2024

हिन्दी लघुकथा (अङ्क १३ मा प्रकाशित)

समय की दरकार

-देवी नागरानी


​समय की क़द्र वो ही जानते हैं जो समय की पाबंदियों का पालन करते हैं और उस दौर में अपना लक्ष्य भी हासिल करते हैं. समय के सैलाब में बहते हुए हम कभी दो पल रुककर ये नहीं सोचते कि यह समय भी रेत की मानिंद हमारी बंद मुट्ठियों से निकला जा रहा है. जाना कहाँ है, जा कहाँ रहे हैं? शायद वक़्त की धाराओं के साथ हम बेमक्सद ही रवां हो रहे हैं.

सब कुछ करते रहते हैं, खाने-पीने, मौज-मस्ती की महफ़िलों का हिस्सा बनने के लिए हमारे पास समय है, पर जो काम ख़ुद की पहचान पाने के लिए करना है, उसके लिए समय नहीं! उस काम को न करने के बहाने सबब बन कर सामने आते हैं. अक्सर कहते हैं और सुनते हैं- ‘समय ही नहीं मिलता’ । सच है समय को कौन बांध पाया है बस उसी समय के चलते चक्रव्यूह से बाहर निकल कर एक और पहचान पा लेनी है जो सच का मापदंड है.
इस समय के सिलसिले में एक सुना हुआ किस्सा याद आया- एक बच्चे ने एक दिन अपने पिता से, जो काम से थका हारा लौटा था पूछा- "पिताजी आपको एक घंटा काम करने के लिए कितने डालर मिलते हैं?" अजीब सवाल में न उलझ कर पिता ने कहा “पचीस डालर."
बेटे ने पिता से ज़िद की कि वह उसे दस डालर दे। पिता ने दिए तो सही पर वह सोचने लगा - "कभी न मांगने वाला बेटा आज यह कैसी फरमाइश कर बैठा है?" कुछ सोचकर वह बेटे के कमरे में गया तो देखा तो वह कुछ और डालर उसके दिए हुए दस डालर में जोड़ रहा था.
"क्या कर रहे हो? क्यों चाहिए तुम्हें इतने पैसे? " पिता ने जानना चाहा. बेटे ने पचीस डालर पिता की ओर बढ़ाते हुए कहा "पिताजी क्या कल आप ऑफ़िस से जल्दी आकर मेरे साथ खाना खा सकते हैं, ताकि हम एक घंटा साथ-साथ बिताएं, यह पचीस डालर मैंने उसीके लिए जमा किये हैं."
समय का मूल्यांकन तो उस मासूमियत ने लगाया जिसे समय की दरकार थी, दौलत की नहीं !


...साथ सहयोगको खाँचो

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