Sunday, July 21, 2024

हिन्दी लघुकथा (अङ्क १४ मा प्रकाशित)

खोया हुआ आशियाना

- संजय मृदुल
रायपुर छत्तीसगढ    



अरे ! बल्ब तो जला लीजिये । अंधेरा पसर गया है कमरे में ।

सुधा ने भीतर आते हुए कहा ।

शान्तनु की यादों की ट्रेन को अचानक ब्रेक लगा । भीगी हुई आँखे देखकर सुधा ने करीब आकर हाथ थाम लिया । बर्फ सी हथेली नम हो गयी थी ।

“क्या हुआ हरि ओम?’’ सुधा ने हौले से पूछा ।

“ये अकेलापन अब भारी पड़ने लगा है सुधा । कैसे कटेगी बाकी की जिंदगी ।’’ 

सुधा सुन उसे थोडा अचरज हुआ । सालों से दोनों एक दूजे को नाम से न पुकार कर हरि ओम बुलाते थे ।

काटना तो है, यही नियति है । जैसे हम सब कुछ छोड़जीवन में आगे बढ़ते गए वैसे ही अब बच्चे भी आगे जा रहे ।

हम्म । गम्भीरता से हुंकार भर शान्तनु ने फिर आंख बंद कर ली ।

शान्तनु के पिता सरकारी नौकरी में थे, किसी एक शहर में लम्बे समय तक नहीं रहे । इसी कारण न घर बनाया न कोई सम्पत्ति । पारिवारिक सम्पत्ति बेच कर जो मिला जमा कर दिया । ब्याज से शौक पूरे हो जाते और तनख्वाह से घर के खर्चे, तब सस्ते का जमाना था । शान्तनु बडे हुए तो बैंक में लग गए । पिता माता को छोड़कर फिर उनका सफर शुरू हुआ । बैंक की नौकरी में सुविधाओं की कमी नहीं होती पर एक जगह पर ज्यादा समय नहीं रहने मिलता । यायावर से वो भी भटकते रहे शहर दर शहर । माता पिता और दोनो बच्चे । पिता से जो सीखा वही अपनाया ।

न कहीं सम्पत्ति बनाई न घर । ज्यादा हुआ तो पत्नी के लिए जेवर बनवा दिए । बच्चों के शौक पूरे कर दिए ।

बचपन से जो भटकने का सिलसिला चल रहा था वो उनके बच्चों को न सहना पडे ये सोचकर दोनो को होस्टल में डाल दिया । 

कुछ साल बाद बस पति पत्नी ही रह गए । बैंक का दायरा बढा तो तबादला देश के अलग अलग हिस्सों में होने लगा । तरक्की, नाम, पैसा सब था नहीं था तो बस सुकून ।

बच्चे पढ़लिखकर नौकरी में लग गए । बडा विदेश चला गया और छोटा मुंबई में ।

स्कूल की छुट्टियों में बच्चे घर आ जाते फिर वो बडे होते गए और उनकी व्यस्तता बढ़ती गयी । कभी आये, कभी नहीं ।

कुछ साल हुए रिटायर हुए शान्तनु को । अब तक घर नहीं बनाया उन्होंने । पैसों की कमी नहीं । पर लगता है क्या करेंगे घर का । बेटों को आकर रहना नहीं यहां । उनके बाद क्या होगा घर का ।

उनके कुछ सहकर्मी रिटायर होने के बाद अपने अपने गृहनगर वापस चले गए, कुछ ने जहां रिटायर हुए वहीं घर बना लिया । 

शान्तनु को तो याद भी नहीं वो अपने पुरखों के शहर कब गए थे । न किसी से सम्पर्क सुदृढ था न ही रिश्ता । नाम भी याद नहीं अब तो किसी के परिवार में । 

बस दो प्राणियों का संसार है उनका । सुबह होती है फिर रात आती है । इसी तरह जीवन बीत रहा है ।

आज बैठे हुए सोच रहे थे शान्तनु कि कल को वो नहीं रहे तो सुधा का क्या होगा । बेटों से रिश्ता इतना भी मजबूत नहीं कि वो ले जाएं सुधा को । वो ले भी जाएं तो उनकी पत्नियों को पसन्द आएगा या नहीं? या कहीं सुधा नहीं रही तो वो क्या करेंगे? 

जीवन की तेज रफ्तार में कहीं थम जाएं, कहीं बसेरा कर लें, कहीं नीड बना लें ये क्यों नहीं सोचता इन्सान? पैसा, इज्जत, सब किस काम के अगर परिवार, रिश्तेदार पास न हो ।

शान्तनु की बन्द आंखों से फिर एक बूंद चेहरे पर बिखर गई ।


...साथ सहयोगको खाँचो

 

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